मंगलवार, 27 सितंबर 2011

सिर्फ आप लोगों के लिये ...!!!साभार

वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती है
मगर आंखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है।

कंटीली झाड़ियां उग आती हैं लोगों के चेहरों पर
खुदा जाने वो कैसे भीड से बचकर निकलती है।

जमाने भर से इज्जत की उसे उम्मीद क्या होगी
खुद अपने घर से वो लड की बहुत डरकर निकलती है।

बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलते हैं
कोई सीता जब लक्ष्मण रेखा के बाहर निकलती है।

सफर में तुम उसे खामोश गुडि या मत समझ लेना
जमाने को झुकी नजरों से वो पढ कर निकलती हैं।

खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है
वही लड की खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है।

जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी
वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ्‌तर निकलती है।

छुपा लेती है सब आंचल में रंजोगम के अफसाने
कोई भी रंग हो मौसम का वो हंसकर निकलती है।

1 टिप्पणी:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…






आदरणीय कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा जी
सस्नेहाभिवादन !

बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल लिखी है आपने

खुद जिसकी कोख में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है
वही लड़की खुद अपनी कोख से मरकर निकलती है।

क्या शे'र कहा है साहब ! फ़िदा हो गया …

जो बचपन में घरों की जद हिरण सी लांघ आती थी
वो घर से पूछकर हर रोज अब दफ्‌तर निकलती है।

बेहतरीन !
मेरी पसंद की बह्र में लिखी यह ग़ज़ल पढ़ने का अवसर देने के लिए आभारी हूं !

बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार