मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

उल्फत..?

उल्फत नही थी दिल में ,तो दिल को रुलाया कैसे ?
मंजिल तलक कसमों को यूँ ही तुमने भुलाया कैसे ?

गर पता होता दिल को तेरी इस बात का,
क्या दर्द भरा सिला दिया ,मेरे जज्बात का

पहले ही मोड़ लेते अपने अरमानों की नाव को ,
गर दिलाया होता यकीं प्यार कि बरसात का

मझधार में छोड़ दी पतवार ,प्यार के इमकान की ,
फना हो के चुका दी हमने, कीमत तेरे अहसान की

हमेशा मेरी रूह दुआ करे तेरे आबाद रहने की ,
पर दे खुदा तुझे मौका ,किसी को अपना कहने की

'कमलेश 'तुम्ही ने इस जिन्दगी को इक दम से मोड़ा था ,
शिकवा है तोडा उसी दिल को, जिससे तुमने ही जोड़ा था

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