अश्को से लबो की प्यास बुझती है ,
माजी की चोट से रग-२ दुखती है ।
कोंन कहता है मोहबत नहीं मिलती ,
सोने-चाँदी के बदले सरे-बाज़ार बिकती है ।
कभी उस आँगन से था रहगुजर अपना,
मगर वहां आज दीवार सी दिखती है।
भूखे-नंगे और फुटपाथ पे ठिठुरते लोग,
वक़्त भी कैसे-२ "मीत" किरदार बदलती है॥
माजी की चोट से रग-२ दुखती है ।
कोंन कहता है मोहबत नहीं मिलती ,
सोने-चाँदी के बदले सरे-बाज़ार बिकती है ।
कभी उस आँगन से था रहगुजर अपना,
मगर वहां आज दीवार सी दिखती है।
भूखे-नंगे और फुटपाथ पे ठिठुरते लोग,
वक़्त भी कैसे-२ "मीत" किरदार बदलती है॥
2 टिप्पणियां:
bahut achchee ghazal hai.
कभी उस आँगन से था रहगुजर अपना,
मगर वहां आज दीवार सी दिखती है।
yah sher khaas lagaa.
abhaar
वाह लाजवाब गजल. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
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