गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

जिन्दगी कंक्रीट हो गयी ..!!

कमलेश वर्मा
कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
इन्सान हो गये पत्थर के ,जिन्दगी कंक्रीट हो गयी

अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए ,
इन पत्थरों के आंसूओं को, ये आदत हो गयी

ढूंढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी

''कमलेश''खुशफहमी में ,जीते है बस्ती के लोग ,
औरों के गम-खुशियों से , इनको जैसे अदावत हो गयी

5 टिप्‍पणियां:

sonal ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा है

dipayan ने कहा…

बहुत खूब लिखा आपने । शहर मे रहने वालो का दर्द उजागर कर दिया ।

संजय भास्‍कर ने कहा…

अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए
bilkul sahi kaha sehar me log aksar aisa hi karte hai...

Dimple Maheshwari ने कहा…

आप तारीफ़ करने में तो कविता लिखने से भी ज्यादा पारंगत हैं..|

Dimple Maheshwari ने कहा…
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