कंक्रीट के जंगलों में ,इंसानियत खो गयी ,
इन्सान हो गये पत्थर के ,जिन्दगी कंक्रीट हो गयी ।
अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए ,
इन पत्थरों के आंसूओं को, ये आदत हो गयी ।
ढूंढें से नही मिलती, जिन्दगी इन मकानों में ,
मतलब परस्ती यहाँ की, रिवायत हो गयी ।
''कमलेश''खुशफहमी में ,जीते है बस्ती के लोग ,
औरों के गम-खुशियों से , इनको जैसे अदावत हो गयी ॥
5 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर लिखा है
बहुत खूब लिखा आपने । शहर मे रहने वालो का दर्द उजागर कर दिया ।
अब नही बहते आंसूं यहाँ ,किसी के लिए
bilkul sahi kaha sehar me log aksar aisa hi karte hai...
आप तारीफ़ करने में तो कविता लिखने से भी ज्यादा पारंगत हैं..|
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