रविवार, 9 मई 2010
फंदे पर लटकते 'अजमल 'और 'कसाब'चाहिए!
अपने लहू के इक -इक कतरे का हिसाब चाहिए !
फंदे पर लटकते 'अजमल 'और 'कसाब'चाहिए!
जिनका बहा है खून जरा ,उनके दिल से पूछिए ,
जो देखा था आँखों ने वो , सुंदर सा ख्वाब चाहिए !
कितनी गैरत बाकि है इस देश में ,गैरों के लिये ,
क्यों ? ये मेहमान नवाजी इनकी .जवाब चाहिए !
जिंदगियोंमें जो अँधेरा किया, इन जालिमों ने ,
इनमे रोशनी भरने को, हजारों महताब चाहिए !
इनकी जड़ों को काट दो ,जहाँ से ये निकलती है ,
उन शहीदों की आत्माओं को, भी इंसाफ चाहिए !
दिल रोता है देख कर अपने, देश के कानूनों को ,
आतंकियों के लिये कानून बिलकुल सख्त और साफ चाहिए !
'कमलेश 'क्या हो गया है इस देश के कर्णधारों को ,
हमे वोटों और लाशों की गिनती का इनसे हिसाब चाहिए !!
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2 टिप्पणियां:
प्रशंसनीय रचना ।
आज ऎसी ही क्रान्तिकारी कविताओं की ज़रुरत है. आपकी इस कविता में झंकृत कर देने का माद्दा है.
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